बहराइच जनपद में मुख्यालय से उत्तर पश्चिम की ओर रेलवे स्टेशन रिसिया से 02 किमी0 की दूरी पर ग्रामीण क्षेत्र में यह महाविद्यालय स्थित है जहाँ छात्रों को सहज रीति से नगर के कोलाहल से दूर प्राकृतिक वातावरण मे अध्ययन एवं चिन्तन-मनन का सुअवसर उपलब्ध है।
गायत्री को सद्विचार और यज्ञ को सत्कर्म का प्रतीक मानते है। इन दोनों का सम्मिलित स्वरूप, सद्भावनाओं एवं सद्प्रवतियों को बढाते हुए विश्व-शान्ति एवं मानव कल्याण का माध्यम बनता है। अन्धकार से प्रकाश की ओर जाना स्वाभावित है। वर्तमान काल में गायत्री तपोभूमि मथुरा के संस्थापक वेदमूर्ति तपोनिष्ठ आचार्य श्रीराम शर्मा ने गायत्री के तत्वज्ञान एवं वैदित परम्पराओं को पुनर्जीवित करने का सुव्यवस्थित तथा वैज्ञानिक प्रचार-प्रसार गत 50 वर्षों से प्रारम्भ किया है। उनकी प्रेरणा से देश और विदेश में लाखों व्यक्तियों ने गायत्री उपासना करने तथा गायत्री महामंत्र के तत्वज्ञान को व्यापक तथा प्रभावद्यशाली बनाने के पुनीत अभियान को चलाया और उसे गायत्री परिवार की संज्ञा दी गई।
बहराइच जनपद में गायत्री परिवार की अनेक शाखायें एवं कर्मठ सदस्य है। महाविद्यालय के भूतपूर्व प्राचार्य/प्रबन्धक स्व0 प्रो0 कन्हैया लाल श्रीवास्तव 1955 ई0 से गायत्री परिवार से सम्बद्ध थे। शिक्षक के रूप मंे कार्य करते हुए उन्होंने विशिष्ट प्रकार का लोकोपयोगी जीवन क्रम बनाकर गायत्री शक्ति पर अटूट विश्वास के साथ जनपद में सरस्वती इण्टर कालेज रिसिया, सर्वोदय इण्टर काजेल मिहीपुरवा समेत कई छोटी बड़ी शैक्षिक संस्थाआंे की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रो0 स्व0 श्रीवास्तव जी ने बहराइच का इतिहास, रामायण-कथा, बाल निर्माण साहित्य समेत अनेक पुस्तकों की रचना भी की थी। सन् 1969 में राजगीर (बिहार) में होने वाले सर्वोदय सम्मेलन के समय उन्हें प्रत्यक्ष रूप में प्राचीन नालन्दा विश्वविद्यालय के भग्नावशेंषों को देखने का शुभ अवसर मिला। अन्तः प्रेरणा एकाएक उनके मन में उठी कि भारत और नेपाल की सीमा पर इसी स्तर का शिक्षा केन्द्र स्थापित होना चाहिए। मन ही मन अपनी इष्ट देवी वेदमाता गायत्री का ध्यान करते हुए उन्होने भग्नावशेष के कुछ टुकड़े बटोरे और बिना अपने साध्न एवं सामथ्र्य का ध्यान किए इस कार्य के लिए जीवन समर्पित करने का संकल्प कर डाला।
वहां से लौटने के बाद पूज्य आचार्य जी ने उत्तर प्रदेश की ओर से श्री श्रीवास्तव जी को सहरत्र कुण्डीय गायत्री महायज्ञ करने का निर्देश दिया। सम्पूर्ण भारत मंे उस समय पाँच स्थानों पर इस स्तर के यज्ञ आयोजन हुये थे। यह एक विशाल धार्मिक आयोजन था जिसमें प्रदेश भर से 25000 व्यक्ति सम्मिलित हुए थे। बहराइच रेलवे स्टेशन के निकट 27,28,29,30 दिसम्बर 1970 को यज्ञ सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ। भावनात्मक स्तर के विशाल आयोजन के बाद उसी स्तर के रचनात्मक कार्य के द्वारा ही यज्ञ का प्रभाव स्थाई एवं व्यापक बनेगा, इस दृष्टिकेाण से वे पुनः किसी अज्ञात शक्ति प्रेरणा से बेचैन रहने लगे। उस समय वे सर्वोदय इण्टर कालेज मिहींपुरवा के प्राचार्य थे। बहराइच, मिहींपुरवा, नानपारा आदि मंे उपयुक्त भूमि की खोज की लेकिन बिना मूल्य के कौन देने वाला था। अन्ततः अपनी पत्नी श्रीमती शान्ती देवी से परामर्श करके पैतृक बाग एवं भूमि मां गायत्री के चरणों में समर्पित किया। ज्येष्ठ सुदी दशमी तदनुसार 3 जून 1971 को गायत्री जयन्ती के शुभावसर पर नालन्दा विश्वविद्यालय से लाये हुए अवशेषों को समाहित करके उपस्थित जनसमुदाय के समक्ष शिलान्यास समारोह सम्पन्न किया। प्रबन्ध समिति का गठन एवं पंजीयन करके सम्बद्धता के लिए गोरखपुर विश्वविद्यालय को आवेदन प्रेषित किया गया। कार्य की विशालता और साधनों की स्वल्पता का विचार करते हुए सभी को कार्य सिद्धि में संदेह होता था लेकिन ईश्वर की शक्ति का नाप तौल नहीं है। उसी की कृपा और प्ररेणा से सैकड़ो स्वजनों ने सहयोग का हाथ बढ़ाया। एक वर्ष 180 फुट पक्के भवन का निर्माण हो गया। डेढ़ लाख की अचल सम्पत्ति, कई हजार रूपये सुरक्षित कोष, पुस्तकालय, कोष्ठापकरण आदि की कठोर शर्तें भी धीरे-धीरे पूरी हो गयीं और जुलाई 1972 ई0 में साहित्यिक वर्ग के आठ विषयों से अस्थाई मान्यता प्राप्त हुई। तीन वर्ष के बाद 1975 ई0 में स्थायी मान्यता भी प्राप्त हुई।
इस प्रकार दो राष्ट्रों की सीमा पर अपने अन्दर महानता के बीज संजोये हुए इस शिक्षा संस्था का अभ्युदय हुआ। राजस्थान के राज्यपाल महामहिम सरदार जोगेन्दर सिंह ने 1974 में भवन का शिलान्यास सम्पन्न किया। वर्ष 1976 में वाणिज्य संकाय स्नातक एवं वर्ष 1994 में परास्नातक की मान्यता प्राप्त हुई। इसके पश्चात् वर्ष 2003 में कला संकाय में परास्नातक (शिक्षा शास्त्र एवं प्राचीन इतिहास विषय) की मान्यता प्राप्त हुई। महाविद्यालय को विकास की ओर अग्रसर करते हुये राजनीतिशास्त्र एवं समाजशास्त्र विषयों में स्नातकोत्तर कक्षांऐ सत्र 2016 से चल रही है।
ऐसी युवा पीढ़ी को तैयार करना जो स्वालंभी होने के साथ - साथ कर्तब्यपरायण भी हो।